भारतीय सिनेमा में ‘मुख्यधारा मीडिया’ कि अविरल आलोचना के लिये जिम्मेदार कौन ??…

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बाँलीवुड के तथाकथित मिस्टर परफेक्सनिस्ट कहे जानें वाले आमिर ख़ान निर्मित विदेशी कैमरे से देशी सॉट एक सिनेंमा है पिपली लाइवजिसमें टेलिविजन मीडिया के एक जानें-मानें पत्रकार जैसा ही दिखनें वाले पत्रकार की किरदार निभा रहे एक नकली पत्रकार आत्मदाह कि ओर प्रयासरत बे-चारे देसी किसान (नथ्था) की माँ से एक प्रश्न पुछता है जो कुछ इस तरह है कि आपका बेटा नथ्था आत्महत्या करनें जा रहा है आप अभी कैसा महसूश कर रही हैं”… रील माँ लीक से हटकर सास-बहु के लाइलाज टंटे पर बोलना शुर कर देती है लेकिन अगर कहीं वो की रील की जगह रीयल(वास्तविक) माँ होती तो ऐसे अति संवेदनशील और सर्वविद्यमान माँ-बेटे की अतुल्य, अनोखी इस ख़ालीश संबंध को जानतें हुये भी अनजान पत्रकार बाबुको ठीक वैसी सबक सिखाती जैसे कुछ चुनिंदा सासें अपनीं बहुओं को अक्सर सिखाया करतीं हैं! मतलब वो घटनाँ पत्रकार साहब के सर्वाधिक तीखे अनुभवों में से सबसे तीखा होता। अर्थात वैसी रील माँ और पत्रकार के दर्शन आपको ‘रील बाँलीवुड’ के अलावां शायद ही कहीं हों!

स्वाभाविक है दुनियाँ का हर पत्रकार पत्रकारिता के छः ककार  कहाँ कब क्या किसने क्यों और कैसे। का जबाब ढुढनें की कोशिश करता है, लेकिन साक्षात्कार की संतुलित विधा हेतु ऐसे रील और बेबुनियाद बचकानी प्रश्नों की लड़ी के नये प्रयोग से हम पत्रकारों को अवगत करानें का पुणीत कार्य वाकयी काबिले तारिफ है जिसकी हाजारों बार भी प्रशंसा की जाये तो शायद कम पड़े। जिसका श्रेय भला और बाँलीवुड के भट्टाचार्यों के अलावा भला और किसे जा सकता है ।

अत: हमारे माननीय वजीरे आजम (श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी) के अनुसार वर्ल्ड क्लास विकसित होते हुये भी एशिया महादेश में संभावनायें ढुंढते फिर रहे (ख़ासकर विश्व के सभी विकसित देशों) सहित विकासशील व अल्प-विकसित देशों के राष्ट्राध्यक्षों को अपनें विकसित पत्रकारों(जो शायद विकसित होंनें के नाते अपनें अग्रणी राजनेताओं से विकसित ढंग से सिरदर्द बनकर दो-चार होते होंगें) के (अग्रणी पत्रकारों के) पर सवालिया निशान खड़े करनें का सुनहरा मौका उन विकसित देशों के हाईटेक राजनेताओं को अगर कोई दे सकता है तो वो एशिया की ही धरती पर विद्यमान भारतवर्ष और खाशकर इसके वर्ल्डक्लास लोकप्रिय सिनेंमा के लोकप्रिय अभिनेत्रा,अभिनेत्री निर्देशक,निर्देशिका, निर्माता,निर्मेती, व वर्ल्डक्लास भारतीय सिनेंमा के कास्ट के अलावा शायद कोई और नहीं।

 जिसके सिनेंमा की लोकप्रियता विश्व के सारे देशों में सर्वमान्य है और जिसका बोलबाला सारे अग्रणी देशों में चर्चा व अनुसंधान(रिसर्च) का विषय है, जिसपर उन विकसित देशों के विकसित और अग्रणी अनुसंधान केन्द्र खासकर ऑक्सफार्ड, कोलंबिया इत्यादि वालें जरुर ही अथक व निरर्थक प्रयास कर रहे होंगे, उनको(ब्रम्हाण्ड के सभी कुशल पत्रकारों को) हमारे सिनेजगत से अपनें पत्रकारिता ज्ञान में निसंदेह एक नई और अनोखी(अव्दीतीय) ककार (How r u felling in this crucial,/Injured condition) को शुमार कर लेनीं चाहिये क्या पता वर्ल्डक्लास सिनेंमा व्दारा प्रदत वर्ल्डक्लास दिक्षा शायद उन्हें भी वर्ल्डक्लास पत्रकार बनेनें में गीता ज्ञान साबित हो जाये…

 क्योंकि ऐसे अति संवेदनशील समय पर बाइट लेनें कि ये रामबाण मनगढंत प्रश्न-विधा केवल और केवल भारतीय सिनेंमा के फौरी व मनगढंत चिरकुट पत्रकार पात्रों के पर्दे के पीछे बैठे बेलगाम कथानकों(Script Writers) के खुराफाती दिमाग के अलावा शायद ही किसी अन्य Preston Sturgesहाँलीवुड/विदेशी पठकथा लेखकों के दिमाग में आये… जिनके जीवंत दर्शन बाँलीवुड महाकाव्य के कई कथांशों(फिल्मों) जैसे फुगली(Fight against ugly), पीपली लाइव(Live feed of Democracy), क्रांतिवीर(अति क्रांतिकारी) इत्यादि में स्पष्ट झलकते हैं…

 जैसा कि फुगली में एक चिरकुट पत्रकार पात्र वांन्टिलेटर पर पडें एक अध़मरे पात्र से पुछती है कि अधमरी अवस्था में आकर आपको कैसा लग रहा है / आप अभी कैसा महसुस कर रहे हो ?? मौके पर उपस्थित धरती के भगवान के पात्र की भुमिका निभा रहे एक एक मार्डन धराईश्वर को अपनें उस घायल भक्त की ये दुर्दशा सही नहीं गई और वे अपनी टेटेटे टेमप्रामेंट में शेयर मार्केट की तरह घड्ल्ले से आई भारी गिरावट से उत्पन्न झुंझलाहट की वजह से उखड़ पड़े और मानवता कि सत्य रुपी कडुवी लहज़े का इस्तेमाल करते हुये मुहँ खोला तो मार्डन लिबास में देसी भाषा से पत्रकार साहिबान की स्वागत कर डाली कहा  “लगाँऊ बत्ती तेरे… अभी पता चल जायेगा” ??? कैसा महसुस कर रहे हो ? आये बडा… इसके ठीक बाद दुसरी रील पत्रकार साहिबान नें पत्रकिता के महान धर्म के महाकर्तव्य के निर्वाह के उद्देश्य से अधँमरे हालात में पहुचँनें का कारण बतानें का नागफाँस ब्रम्हास्त्र छोड़ डालीं जैसें अमरिका का प्रेसिडेंट उतनीं हाई सिक्युरिटी के बावजुद इस हालात में पहुँच गया हो।  अब ऐसी बचकानीं मुर्खता पर झड़प होनां तो सवाभाविक है

 किशोरावस्था में बच्चें अक्सर ऐसी बचकानी सवालों के जबाब जाननें की प्रबल इच्छा रखते हैं…जैसे कोइ सक्श जेल/थानें जाकर आया हो तो उनका बालक मन जरुर ये जाननें की कोशिश करता है कि उसे कैसा लग रहा होगा?… भुक्तभोगी अक्सर झुंझलाते हुये बालक कि जिज्ञासा को ये कह कर शांत कराता  है कि बड़ा खराब लग रहा था, डरा-डरा सा महशुस हो रहा था। स्वाभाविक है कि जीवन के प्रथम पड़ाव में उन किशोरों का मन इन दाँव-पेंचों से अंजान रहता है जो अपनीं जिविषिका को शांत करनें कि दिशा में किसी भी हद तक जानें की प्रबल जद्दोजहद रखते है बिना परिणाम की परवाह किये बगैर।

मगर सवाल ये कि क्या मुख्यधारा मीडिया को ऐसी संकटकालीन स्थितियों में ऐसे बचकानीं सवालों कि लड़ी लगाते किसी नें देखा है क्या??… निसंदेह आपका उतर ना में होगा।  तब प्रश्न याहाँ ये उठता है कि तथाकथित समाज के आइनें और मनोंरंजन के नाम पर फुहड़ता परोसनें की आदत से लाचार बॉलीवुड को लोकतंत्र के अभिन्न स्तंभ को भी दो टके के मनोरंजन में घसीटनें का दु:साहस क्यों और और किस समाज को आइना दिखानें के महाउद्देशय से किया गया ? ? ?

ऐसी कई सारी फिल्में हैं जिसमें पत्रकारों व पत्रकारिता जगत को हल्के में लेते हुये हमारा मजाक बनाया गया है। हलांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि समय-समय पर हमारी पत्रकारित में मौजूद कुछ उच्छृंखल व अशिष्ट तत्वों नें भी अपनें सफेद भूल से इन व्यंगों को जायज ठहराया है।  लेकिन याहाँ मामला सिनेंमा की रील जिंन्दगी की नहीं बल्कि एक जिम्मेवार और गंभीर पत्रकारिता की है जो अपनीं हदें और समाजिक जिम्मेवारियों को अच्छी तरह समझता और उसे समाज में अमल भी करता हैं।

 भारतीय प्रेस नें आजादी के कई वर्ष पूर्व से ही असंगठित समाज को अपनें सुविचारों से संगठित करनें का काम किया और इसके इतर हमारे सिनेंमा इसकी झलक पहले कि अपेक्षा कम और धुँधली दिखाई पड़ती है।

अगर हम भारतीय प्रेस पर नज़र डालें तो देखते हैं कि 1780 में हिक्की के बंगाल गज़ट से भारतीय पत्र-पत्रिकओं की कठिन शुरुआत हुई जिसके बाद से ही हमारे प्रेस नें पग-पग पर बीछी पाहन की नुकीली राहों में काँटों भरी फुलों पर असंख्य कठिनाईयों की दुर्दीनों को झेलते हुये और अपने लक्ष्य से विचलित हुये बिना सुचनाओं, सुविचारों और खबरों कि अविरल धारा से समाज को सिंचित करनें का काम किया, तथा 18 वीं शताब्दी के भारतवर्ष में छाई उस घोर अजारुकता व असंगठितता के तिमिर को शीशीर के अम्बर में खिली धूप रुपी प्रकाश पुंज के उर्जावान आशा में तब्दील करनें की पुरजोर व अथक कोशिश हमारे पत्रकरिता के जनक उन अनेक महान विभुतियों नें कि जिसका मधु-स्वाद चख रहें हम करोंडों भारतवासी खासकर हम पत्रकार महोदय उनके ये कर्ज चाहकर भी अदा करनें में ठीक उसी तरह असफल साबित होंगें जिस तरह एक अनमोल माँ के कर्ज चुकानें में उसके संतान हमेंशा विफल साबित होते हैं…।

 18 वीं शताब्दी के कठिन व नई चुनौंतियों के सफर में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी,महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रतापनारायण मिश्र, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी बालमुकुन्द गुप्त,मोतीलाल घोष वीर राघवाचारी बाल गंगाधर तिलक, के.के.मित्रा, वी.एन.मांडलिक एम.जी.रानाडे,मदन मोहन मालवीय, रामपाल सिंह,भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट जैसे अनेक महान विभुतिओं नें चुनौंतियों को संभावनाओं में तब्दील कर आगे का मार्ग प्रश्स्त किया तो 19 शाताब्दी आते-आते कुछ राजनीतिक जयचंदों की वजह से अपनीं ही बेड़ियों में बंधी और अंग्रेजों की गुलामत से त्रस्त भारत माँ मदद का गुहार लगा रही थीं, लेकिन पर्याप्त जनसंचार के साधनों/संसाधनों का अभाव,बहुल अशिक्षा व जन-जागरुकता की कमी इत्यादी कठिनाईयों के दौर में भी महात्मा गाँधी जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद आदि-आदि स्वतंत्रता के दिवानें विभूतियों नें पत्रकारिता के मजबूत हथियार से जनामानस में जनसंचार की नई क्रांती की लहर संचारित की फलस्वरुप हमारे प्रेस नें तोपों से लोहा लेनें में भी पीछे नहीं हटी और भारतीय स्वतंत्रता में अपना अमूल्य योगदान निभाया… जिसकी आलोचनां करनें का दुरासाहस भारतीय सिनेंमा ही करती है तो उन हजारों विभुतियों की स्वर्गवासी आत्माँ मन ही मन इस वर्ल्ड-क्लास सिनेंमा पर कितनीं दुखीत होती होगी और हम मार्डन पत्रकारों पर भी कि हमनें अपनें विभुतियों का ख्याल ना रख शायद इन्हें ये मौका दिया जिसकी शुरुआत ही विदेशी कैमरों की बीप-बीप से हुई और जिसकी जन्म ही हमारे अख़बारों के पन्नों में छपी बोल्ड लीड़ हेड़लाईन्स से हुई अर्थात जिस मिड़ियम नें सिनेंमा को जन्म से अभी तक इस मुकाम पर ला खड़े करनें में उतकृष्ठ योगदान निभाया ये वर्ल्ड क्लास सिनेंमा जानें क्यों वर्षों से इस ख़बर से बेख़बर मालुम पड़ती है।

संदेश साफ है इन रील मुंम्बईया पत्रकार के स्कृप्ट लेखकों,निमर्ताओं को ऐसी दुराग्रह और बेबुनियादी सोंच को रंगीन पर्दें का पुट देनें से पहले ठीक ढंग से सोंच विचार कर लेनीं चाहिये कि पत्रकिता में फुँहड मनोरंजन वाला कोई सीन नहीं होता, व बीप-बीप और रीटेक की गुंजाइस नहीं होती। अत: लोकतंत्र के अभिन्न स्तंभ कि विश्वसनीय विशेषता कि छवि धुमिल करनें के दु:साहस भरे रवैये तीमारदारों को अपनीं डायरी से जितनीं जल्द हो सके  भुला देंनीं चाहिये अन्यथा मामला भारत पाकिस्तान के कश्मीर मलसें जैसा हो सकता है…

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