मेरे और आप की तरह कॉल गर्ल्स भी कुछ कहती हैं…

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हमें इंसान ही रहने दो कोई नाम न दो…

झारपोस्ट डॉटकॉम के लिए नेहा आशुतोष की रिपोर्ट…

पहले तो ये सड़कें भी मुझे मेरी तरह आवारा लगतीं थीं लेकिन, आज लगता है न सड़कें आवारा हैं और न मै, आवारा तो ये वक़्त है जो मुझे अपने साथ बहा कर इस सड़क पर ले आया लेकिन अब मै खुश हूँ ये सड़क ही मेरा घर है. अब इसके और मेरे बीच एक ख़ास रिश्ता है.”

ये कहना है दिल्ली के बेर सराय इलाके में सड़क पर खड़ी रोशनी (बदला हुआ नाम) का जिसकी ज़िन्दगी में अब सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा है उम्मीद का कोई कतरा नहीं के उसे इसी तरह जीना और सड़क पर दफन हो जाना है क्यूंकि वो एक कॉल गर्ल है…

वैसे तो सेक्स वर्कर की ज़िंदगी में प्यार की जगह नहीं होती और ना ही सम्मान की लेकिन ज़रुरत के लम्हों के बीच रोशनी अब कहीं ज्यादा सुकून महसूस करती है, पूर्णिया की उस ज़िल्लत भरे भावनाहीन संबंध के बाद जो उसने अपने पति  के साथ गुज़ारे थे और एक दिन शराबी पति को छोड़ एक दोस्त के साथ हमेशा के लिए दिल्ली आ गयी।

बारहवीं पास रोशनी को लगा था की अपने लिए जल्दी ही वो कोई नौकरी तलाश कर लेगी पर पैसों की तंगी और दलदल ने उसे जिस्मफरोशी के इस दलदल में धकेल दिया।

रोशनी बताती है की उसके लिए शुरू में ये सब इतना आसान नहीं था। एक दिन उसकी एक दोस्त सुनीता ने उससे कहा अगर तुम थोड़ी दूर खड़े उस आदमी के साथ जाओगी तो वो तुम्हें पैसे देगा वो भी कम से कम 2 से 3 हज़ार हालांकि ये कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन उस वक्त रोशिनी के लिए यह ख़ज़ाने से कम न था।

रोशनी के पूछने पर सुनीता ने कहा उसे उस आदमी के साथ एक कमरे में जाना है और काम करना है. रोशनी यह सुन कर डर गई और उसने इससे इंकार किया. सुनीता ने  रोशनी को समझाया, “जब तुम अपने पति को यौन सुख दे सकती हैं और उसके बदले रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं मिलता तो उस आदमी को यौन सुख क्यों नहीं दे सकतीं जिससे तुम्हे इस शहर में एक छत और खाना मिलेगा?”

रोशनी ख़ुद को असहाय महसूस कर रही थी, लेकिन वो उस आदमी के पास गयी . उस आदमी ने शायद रोशनी की मजबूरी समझ ली थी. उसने 2000 उसके हाथ में रख दिए और कहा कि वो उसका फ़ायदा नहीं उठाना चाहता और उसे पैसे के बदले कुछ नहीं चाहिए.

अगले दिन रोशनी इंडिया गेट के उसी चौराहे पर पहुंची, लेकिन इस बार वो सोच रही थीं कि अब उसके पास एक छत भी होगी और खाना भी।

अब वो किसी और पर नहीं खुद पर निर्भर करती हुई एक आत्मनिर्भर लड़की है और उम्मीद की किरण अब भी बरकरार है की एक दिन ऐसा भी आयेगा जब उसकी ज़िन्दगी में इज्ज़त और मान के कुछ ऐसे पल होंगे जिनपर हर इंसान का हक है, की उसे भी समाज में एक सम्मानजनक जीवन मिलेगा। ये कहानी है सुनीता की…

नौकरी के नाम पर लाई गई

पश्चिम बंगाल के 24 परगना से लाई गई सुनीता की ज़िंदगी कई मुश्किल रास्तों से होकर गुजरी थी जो पथरीला भी था और जिसमें ठोकरें भी थीं.

वह बताती हैं, “मेरे घर में मां-बाप और एक छोटी बहन और भाई थे. घर में हमेशा पैसों की किल्लत रहती थी. ऐसे में कमाने वाले एक और हाथ की जरूरत थी इसलिए मैंने सोचा कि मैं भी कमा लूं, तो घर में कुछ मदद हो जाएगी.’ तब गांव के ही एक आदमी ने मुझे शहर में नौकरी दिलाने की बात की. उसने मेरे मां-बाप से भी कहा था कि वो कोई काम दिला देगा और अच्छे पैसे मिलेंगे. करीब पांच साल पहले मैं उसके साथ आ गई. लेकिन, कुछ दिन टाल मटोल करने के बाद उसने मुझे कोठे पर बेच दिया.”

सुनीता ने भी रोशनी की तरह इस पेशे से समझौता कर लिया है और वो हर दूसरे पेशे की तरह इसे रोज़ी रोटी देने वाला एक ऐसा पेशा मानती है जिसका अपना श्रम अपनी मुश्किलें और चुनौतियाँ हैं तो आखिर लोग उन्हें बुरी नज़र से क्यूँ देखते हैं ये सवाल है सुनीता का उन तमाम लोगों से जिनकी निगाहों में उसके लिए कभी लालच, कभी नफ़रत और कभी हिकारत होती है।

भारत जैसे कई ऐसे देश हैं जहाँ सेक्स वर्क को अवैध माना जाता है. दो साल पहले फ्रांस ने भी कानून बनाकर ‘पेड सेक्स’ को प्रतिबंधित कर दिया था जिसके एक साल पूरा होने पर वहां की तमाम सेक्स वर्कर्स ने सड़कों पर उतारकर इस कानून के खिलाफ जमकर विरोध प्रदर्शन किया जिनकी संख्या करीब 150 थी और विरोध का स्वर साफ था “सेक्स वर्क भी एक पेशा है.”

बड़ा सवाल ये नहीं है की हमारे देश में इसे लीगल किया जाना चाहिए या नहीं, बड़ा सवाल ये है की आधी रात को चमकीले लिबासों में सड़क किनारे खड़ी उन मासूम और मज़लूम लड़कियों को हम कभी इज्ज़त के कुछ कतरे दे पाएंगे या नहीं…??

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सांकेतिक तस्वीर, फोटो- गूगल

हम क्यूँ भूल जाते हैं की जिस सृष्टी ने उन्हें जीवन दिया जब वो उनके साथ कोई फ़र्क नहीं करती तो हम कौन होते हैं फर्क करने वाले..?? बारिश उन्हें भी भिगोती है, धूप उन्हें भी तपाती है तो फिर हम क्यूँ उन्हें थोड़ी सी इज्ज़त थोड़ा सा विश्वास नहीं दे सकते…??

मुझे रोशनी और सुनीता से मिलकर लगा जैसे वो बार-बार कह रही हों, “हमें इंसान ही रहने दो कोई नाम न दो”.

 

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