21 वर्षों में झारखंड ने क्या पाया? पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार ‘श्याम किशोर चौबे’ का विश्लेषण

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तकरीबन 3.5 करोड़ सभी झारखंडियों को बधाई। जिस झारखंड के लिए 6 दशकों तक संघर्ष किया गया, वह देखते-देखते 21 वर्षों का हो गया। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि यह राज्य गबरू जवान हो गया है लेकिन दरहकीकत 21 वर्षों का तो हो ही गया।

शैशवावस्था, युवावस्था, बुढ़ापा उन तत्वों संग टैग होता है जिनकी मृत्यु होती है। हमारा राज्य कभी नहीं मरनेवाला। इसलिए इसके साथ युवा जैसा शब्द उपयोग में नहीं लाया जाना चाहिए। लेकिन इसके स्थापना दिवस पर यह तो याद किया ही जाना चाहिए कि 21वीं सदी जब अपने प्रवेश के लिए दुनिया के दरवाजे खटखटा रही थी, उस अमृत वेला में भारत महान के अंतिम 28वें राज्य के बतौर झारखंड का उभ्युदय 14-15 नवंबर 2000 की दरम्यिानी रात हुआ। लगे हाथ यह भी विचार किया जाना जरूरी है कि अब, जबकि वह दो दशकों की यात्रा के बाद तीसरे दशक का दशांश भी बिता चुका है तो उसके खाते में क्या-क्या दर्ज है?

झारखंड के ठीक पहले गठित और अभी चुनाव के मुहाने पर खड़े उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने बीती गोपाष्टमी के मौके पर 11 नवंबर को हरिद्वार में कहा, 2025 तक उत्तराखंड को देश का नंबर एक राज्य बना देंगे। क्या झारखंडियों को यह जुमला सुना-सुना सा लग रहा है? जरूर लग रहा होगा। यह अत्यंत आकर्षक वाक्य वे 21 वर्षों में कई-कई मर्तबा सुन चुके हैं। इतनी बार सुन चुके हैं कि कान पक गए हैं। हुआ क्या?

इन्हीं 21 वर्षों में झारखंड ने 11 सरकारें देखी। इन 11 सरकारों में 6 मुख्यमंत्री देखे। इन 6 में से उसने 5 आदिवासी और एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री देखा। पिता शिबू सोरेन और पुत्र हेमंत सोरेन तक को मुख्यमंत्री बनते देखा। याद दिलाने की जरूरत नहीं, वर्तमान में युवा और इस नाते ऊर्जावान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को देख रहा है। शिबू सोरेन और रघुवर दास को छोड़ दिया जाय तो बाबूलाल मरांडी हों कि अर्जुन मुंडा या मधु कोड़ा, सभी अपने-अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में युवा ही थे।

इन्हीं 21 वर्षों में झारखंडियों ने 3 टर्म में 1 साल 7 महीने 24 दिनों का राष्ट्रपति शासन भी देखा। इन्हीं 21 वर्षों में उन्होंने 7174.12 करोड़ के सालाना बजट से लेकर 91,277 हजार करोड़ तक का बजट देखा। राजनीतिक तिलिस्म यह कि देश की सबसे आलीशान विधानसभा को बिना नेता प्रतिपक्ष का देख रहे हैं। इन्हीं 21 वर्षों में उन्होंने विधानसभा के बाहर ही नहीं, उसके अंदर भी राजनेताओं को इधर से उधर यानी सत्ता पक्ष से प्रतिपक्ष में या प्रतिपक्ष से सत्ता पक्ष में आते-जाते देखा। कौन किस दल के प्रति आस्थावान है, कौन किस विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध है, कौन कब क्या कर बैठेगा, यह पहेली अबूझ बनी रही।

कहने की बात नहीं कि इन्हीं 21 वर्षों में झारखंडियों ने नक्सलियों के भीषण उत्पात और शांत पड़ते, सरेंडर करते उनके चेहरे भी देखे। इसी तरह अपराधियों का तांडव देखा और अब 21वीं सदी के चलन के मुताबिक साइबर अपराधियों की करतूतें भी देख रहे हैं। घपले-घोटालों को तो छोड़ ही दीजिए, ये बहुत हद तक अपनी लोकशाही का अब अंग बन चुके हैं। ऐसा करनेवाले राॅबिनहुडों को झारखंडी देखते-देखते उनकी गिनती भूल चुके हैं।

एक बात जरूर है कि इन्हीं 21 वर्षों में झारखंडियों ने शहरों में दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ती चकाचौंध भी देखा। रही बात गांवों की, तो इसी दौर में वहां भी उन्होंने बिजली के तार और बल्ब देखे, विधायक, सांसद मद से बनती-टूटती पीसीसी सड़कें देखी और एक जिले से दूसरे जिले को जोड़नेवाली इसी हाल में नेशनल और स्टेट हाईवे भी देखा। इन्हीं वर्षों में वे करीब साढ़े तीन करोड़ आबादी में से 2.61 करोड़ लोगों को पीडीएस के तहत रुपया किलो खाद्यान्न लेकर जीते-खाते और इसी तर्ज पर दस रुपये में धोती-साड़ी लेते 59 लाख परिवारों को देख रहे हैं।

कल्याणकारी राज्य है सो खैरात लूटनेवालों की बढ़ती तादाद देखना सुखद है कि दुखद, यह समझना मुश्किल नहीं। प्रजा के एक वर्ग के टैक्स से राजा खैरात बांटकर खुश है। प्रजा का दूसरा वर्ग खैरात पाकर खुश है। द्रष्टा क्या करे? उसके हिस्से में बस इतना ही है, झारखंड और झारखंडियों को भजनेवाले माननीयों-सम्माननीयों की भीड़ में झारखंडियत और झारखंडी विकास माॅडल न देखकर छाती पीटे। प्रायः 40 प्रतिशत मैन पावर पर विकास गाथा लिखने यानी झारखंड को नंबर एक राज्य बनाने का हौसला रखने वाली हुकूमतों को नजर भर कर देखे, देखता रहेे।

भारी-भरकम बजट और दिल्ली से मिली राशि के कारण लोगों के जीवन में थोड़ा परिवर्तन आना स्वाभाविक है लेकिन देखना यह चाहिए कि हर किसी के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन आया या गरीबी-अमीरी के बीच लंबी, चैड़ी और गहरी खाई बनती गई? किसी तरह जीवन यापन के लिए खैरात बांटने का बढ़ता सिलसिला कतई आश्वस्त नहीं करता कि हर किसी के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है। यदि रोजगार और स्वावलंबन का दर्शन अंजाम पा रहा होता तो खैरात में निश्चय ही कमी आती। थोड़ा ऊपर जाएं तो स्वावलंबन सपना बना रहा, जबकि सरकार के स्तर पर क्षीण मात्रा में की जानेवाली बहालियों पर उठते सवाल आगाह कर रहे हैं कि हमारी नीतियां दोषपूर्ण रही हैं।

चाहे उच्चतर शिक्षा और प्रोफेशनल पढ़ाई का मामला हो कि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारियों का, ऐसी हर जरूरत के लिए हमारी युवा पीढ़ी अन्य राज्यों का मोहताज होकर उन राज्यों के जीएसडीपी में बड़ा योगदान कर रही है। इस पर अपने हुक्मरानों ने कभी विचार नहीं किया। राज-व्यवस्था का मतलब जब अपने नागरिकों का महज पेट भरने तक सिमट जाए तो विकास के सपने उड़न छू हो जाते हैं।

हमारे पुरखों ने जंगल की रक्षा करते हुए अपने जीवन यापन लायक भूमि तैयार की। खूंख्वार जंगली जानवरों के बीच रहकर सामाजिक समरसता बरतते हुए इस भू-भाग को आदर्श बनाया। वह संस्कार मरा नहीं। झारखंडी जनमानस आज भी लोभ-लालच से दूर अपने दम पर विकास की मंजिलें तय करने को तैयार है। जरूरत वातावरण बनाने की है। यह पार्ट शासन-प्रशासन के जिम्मे है। वह अगर शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई और अपेक्षित रोजगार के अवसर तैयार कर दे तो निश्चय ही यह अग्रणी राज्य बन जाएगा, लेकिन…इस लेकिन पर ही आकर वोट की राजनीति ठिठक जाती है और हम साल-दर-साल अबुआ राज में एक-एक वर्ष जोड़कर मन को झूठी तसल्ली देने को विवश हो जाते हैं।

यह लेख ‘वरिष्ठ पत्रकार’ श्याम किशोर चौबे के फेसबुक से साभार है। झारखंड राज्य के बनने से लेकर अभीतक उन्होंने सूबे की राजनीतिक हलचल को करीब से देखा है। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।

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